कृष्ण कहते हैं: ‘जब मनुष्य आसक्तिरहित होकर कर्म करता है, तो उसका जीवन यज्ञ हो जाता है–पवित्र। उससे, मैं का जो पागलपन है, वह विदा हो जाता है। मेरे का विस्तार गिर जाता है। आसिक्त का जाल टूट जाता है। तादात्म्य का भाव खो जाता है। फिर वह व्यक्ति जैसा भी जीए, वह व्यक्ति जैसा भी चले, फिर वह व्यक्ति जो भी करे, उस करने, उस जीने, उस होने से कोई बंधन निर्मित नहीं होते हैं।’
गीता कई अर्थो में असाधारण है। कुरान एक निष्ठा का शस्त्र है। दूसरी निष्ठा की बात नहीं है। बाइबिल एक निष्ठा का शस्त्र है; दूसरी निष्ठा की बात नहीं। महावीर के वचन एक निष्ठा के वचन है; दूसरी निष्ठा की बात नहीं। बुद्ध के वचन एक निष्ठा के वचन है। दूसरी निष्ठा की बात नहीं। गीता असाधारण है। मनुष्य के अनुभव में जितनी निष्ठाएं है, उन सारी निष्ठाओं का निचोड़ है। ऐसी कोई निष्ठा नहीं है जो मनुष्य—जाति में प्रकट हुई हो, जिसके सूत्र बीज—सूत्र गीता में नहीं है।
कृष्ण ने पहले सांख्य की बात कहीं, अगर अर्जुन राज़ी हो जाए, तो गीता आगे न बढ़ती। लेकिन अर्जुन समझ ने पाये सांख्य की बात। इसलिए फिर दूसरी बात कृष्ण को करनी पड़ी। अर्जुन वह भी न समझ पाया; फिर तीसरी बात करनी पड़ी; अर्जुन वह भी न समझ पाया फिर चौथी बात करनी पड़ी।
यह गीता को श्रेय अर्जुन को जाता है। यह अर्जुन समझ ही नहीं पाया। वह सवाल उठाता ही रहा। जब एक मार्ग लगा कृष्ण को कि नहीं उसकी पकड़ में आता है। नहीं उसके साथ बैठता है तालमैल, तब उन्होंने दूसरी बात की; तब तीसरी बात की; चौथी बात की।
मोहम्मद को भी अर्जुन मिल जाता, तो कुरान ऐसी ही बन सकती थी; नहीं मिला। महावीर को भी मिल जात, तो उसके वचन भी ऐसे ही हो सकते थे। नहीं मिला। अर्जुन जैसा पूछते वाला कभी—कभी मिलता है। कृष्ण जैसे उत्तर देने वाले बहुत बार मिलते है।
अर्जुन एक अर्थों में, पूरी मनुष्य—जातिने जितने सवाल उठाए है, उन सबका सारभूत है। पूरी मनुष्य जाति में मनुष्य के मन में जितने सवाल उठाएहै, उन सारे सवालों को वि उठाता चला जाताहै। वह पूरी मनुष्य जाति का रिप्रेजेंटेटिव की तरह कृष्ण के सामने कड़कर खड़ा हो गया। कृष्ण को उसके उत्तरदेने पड़े। एक—एक वह पूछता चला गया, एक—एक उन्हें उत्तर देनें पड़े। वह एक—एक उत्तर को नकारता गया; भुलाता गया;दूसरे की खोज करता चला गया।
ओशो